प्रारब्ध क्या है ?
मनुष्य जो भी कुछ कर्म करता है- “चाहे वह मानसिक हो या शारीरिक” यदि वह शुद्ध मन से किसी आसक्ति के बिना उदासीन भाव से किया गया है तो उसका अन्तकरण पर कोई संस्कार नही पड़ता; क्योकि वह क्रिया रागद्वेषरहित सदारण भाव से कि हुई है, विशेष भाव से नही !
यदि वही क्रिया सामान्य भाव से न होकर विशेष भाव से अर्थात आसक्ति से या विकारसहित अशुद्ध मन से कि जाये तो उस क्रिया से कितने ही नए संस्कार अन्तकरण पर पड़ते है ! फिर वे संस्कार मन को उसी प्रकार कि क्रियाओं कि तरफ खींचते है और स्थिति यह हो जाती है कि वह वैसे ही कर्म करने को तत्पर हो जाता है ! यों करते करते उसको उन्ही कर्मो में रस आने लगता है और वो संस्कार विशेष रूप से दृढ़ हो जाते है,जो उसी प्रकार मन को ऐसी ही क्रियाओं कि और दृढ़ता से खीचते रहते है ! इस तरह पुराने संस्कार कामरूप में परिणित होकर वास्तविक इच्छा न होने पर भी बलपूर्वक मन से ऐसी ही क्रियाएँ करते रहते है !
इसी प्रकार क्रियाएँ होती रहती है और नए संस्कार पैदा करती रहती है ! यह चक्र सदा ही इसी प्रकार चलता रहता है, और इसका कभी भी अंत नही होता है ! और यदि यह कहा जाये कि इसका अंत तभी हो सकता है जब नए संस्कार पैदा होने बंद हो जाये, अर्थात जब क्रियाओं में रस ही न हो, वे उदासीनता से हो, जिनमे केवल पुराने संस्कारो कि ही प्रवृति हो, किसी विशेष इच्छा से नही ! क्रिया में प्रवृति होने पर भी उदासीन रहे, आशक्ति न हो, ऐसा तभी संभव हो सकता है जब जीव को उस क्रिया में सुखप्राप्ति कि चाह न हो ! और यह तभी संभव है जब उसे अपने आनंदस्वरूप की जानकारी हो और पूर्ण ज्ञान हो, वह ज्ञान ही नए संस्कारो को पैदा नही होने देगा !
पुराने संस्कारो में कितने ही संस्कार इतने दृढ़ और परिपक्व होते है कि उनका बलपूर्वक भोग होता है ऐसे परिपक्व और दृढ़ फलदायी संस्कारो को भोगने के लिए अनुकूल भूमि चाहिए ! यदि यह शरीर उस भोग को भोगने के लिए अनुकूल न हो और इस शरीर से भोगने योग्य भोग समाप्त हो गया हो तब जीव इस शरीर को छोड़ देता है और ऐसे संस्कारो को भोगने के लिए दूसरा शरीर धारण करता है जो कर्मो के अनुकूल प्रदान किया जाता है ! और इन्ही कर्मो के द्वारा विभाजित किये संस्कारो के समुदाय को प्रारब्ध कहते है ! नया शरीर इसी प्रारब्ध के भोग को भोगने के लिए प्राप्त होता है ! और प्रारब्ध कि समाप्ति भोगने से ही होती है, अन्य किसी भी उपाय से ये भोग दूर नहीं होते है, यहाँ तक कि जब तक प्रारब्ध के भोग पूरे नही होते, तब तक शरीर रहता है अर्थात शारीर का पतन नही हो सकता है, और प्रारब्ध के पूरे या समाप्त होते ही शरीर का पतन हो जाता है और जो संस्कार अतिदृढ़ होते है वे वापस फलोंमुख होकर प्रारब्ध बन जाते है, और उनके योग्य भोगयतन शरीर प्राप्त हो जाता है, परन्तु बाकि के संस्कार जो अतिदृढ़ नही होते है अर्थात जो फलोंमुखी नही होते है वो वैसे ही पड़े रहते है, इन संस्कारों या कर्मो को “सिंचित” कहते है ! और इन संस्कारो या कर्मो में नए संस्कार और मिल जाये तो ये भी समय पाकर “प्रारब्ध” रूप में बदल जाते है !
पुराने संस्कारो में कितने ही संस्कार इतने दृढ़ और परिपक्व होते है कि उनका बलपूर्वक भोग होता है ऐसे परिपक्व और दृढ़ फलदायी संस्कारो को भोगने के लिए अनुकूल भूमि चाहिए ! यदि यह शरीर उस भोग को भोगने के लिए अनुकूल न हो और इस शरीर से भोगने योग्य भोग समाप्त हो गया हो तब जीव इस शरीर को छोड़ देता है और ऐसे संस्कारो को भोगने के लिए दूसरा शरीर धारण करता है जो कर्मो के अनुकूल प्रदान किया जाता है ! और इन्ही कर्मो के द्वारा विभाजित किये संस्कारो के समुदाय को प्रारब्ध कहते है ! नया शरीर इसी प्रारब्ध के भोग को भोगने के लिए प्राप्त होता है ! और प्रारब्ध कि समाप्ति भोगने से ही होती है, अन्य किसी भी उपाय से ये भोग दूर नहीं होते है, यहाँ तक कि जब तक प्रारब्ध के भोग पूरे नही होते, तब तक शरीर रहता है अर्थात शारीर का पतन नही हो सकता है, और प्रारब्ध के पूरे या समाप्त होते ही शरीर का पतन हो जाता है और जो संस्कार अतिदृढ़ होते है वे वापस फलोंमुख होकर प्रारब्ध बन जाते है, और उनके योग्य भोगयतन शरीर प्राप्त हो जाता है, परन्तु बाकि के संस्कार जो अतिदृढ़ नही होते है अर्थात जो फलोंमुखी नही होते है वो वैसे ही पड़े रहते है, इन संस्कारों या कर्मो को “सिंचित” कहते है ! और इन संस्कारो या कर्मो में नए संस्कार और मिल जाये तो ये भी समय पाकर “प्रारब्ध” रूप में बदल जाते है !
इससे यह बात तो स्पष्ट है कि प्रारब्ध के भोग भोगने में जीव पूर्ण रूप से परतंत्र है अर्थात वे भोग तो उसे भोगने ही होंगे और वास्तव में यह कहा जाये तो भी कोई अतिशयोक्ति नही होगी कि “यह शरीर तो बना ही प्रारब्ध भोगने के लिए ” और इसी शरीर से वे भोग आवश्यक पुरुषार्थ कराएँगे यह तय है !
फलदायी सारांश:- हम इस प्रारब्ध को यह कह सकते है कि आज इस जन्म या जीवन में जो कुछ भी है अर्थात मनुष्य हो या कोई भी जीव हो वह वर्तमान में जो कुछ भी है, उदाहरणार्थ वह अमीर है या गरीब है, स्वस्थ है या व्याधिग्रस्त है या जैसा भी है सब कुछ पूर्वजन्मों का प्रारब्ध है, यह अटल सत्य है, और प्रारब्ध को कोई भी जीव या मनुष्य किसी भी उपाय से प्रारब्ध से बच नही सकता अर्थात प्रारब्ध अच्चा हो या बुरा जीव को तो उसे भोगना ही पड़ेगा ! पर जीव या मनुष्य को चाहिए कि वह प्रारब्ध को तो नही बदल सकता पर अच्छे कर्म करके आने वाले जीवन को इस प्रारब्ध के प्रभाव से बचा सकता है ! यह तभी हो सकता है जब मनुष्य काम- क्रोधाग्नि, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, अहंकार, स्वार्थ-परमार्थ, अपना-पराया आदि विकार रहित भाव भूलकर पुराने संस्कारों पर ध्यान लगाकर अपनी इच्छानुसार अच्छा या बुरा भांपकर अपनी मानसिक व शारीरिक क्रियाओं में उलटफेर कर सकता है, इसी कारण यहाँ पुरुषार्थ कि बहुत आवश्कता है ! इसी से पूजा-पाठ, सत्संग आदि शुभ संस्कार बनाने वाले कार्यों में – जिनसे नए संस्कार बनना बंद होकर ज्ञान कि प्राप्ति हो, पुरुषार्थ कि मुख्य आवश्यकता होती है, और यह कहे कि परमार्थ के लिए पुरुषार्थ कि परम आवश्यकता होती है, और प्रारब्ध के भोग तो अपने आप ही मिलेंगे, उनके लिए चिंता करने कि कोई जरूरत नहीं है ! क्योकि होनी को कोई नही ताल सकता है पर अच्छे कर्म करके आने वाले अगले जन्म को सुधारना मनुष्य के अपने हाथ में होता है, और मनुष्य को चाहिए कि जीवन को भोग-विलास में लगाने कि बजाय भगवत्प्राप्ति कि रह पर लगाना चाहिए !
!! राधे-राधे !!
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